माज़ोरी
ख़लोत व जलोत में तुम मझ से मली हो बारहा
तुम ने कया दीखा नहीं में मसकरा सकता नहीं
मींकह मएोसी मरी फ़तरत में दाखिल हो चकी
जबर भी ख़ोद पर करोंतो गनगना सकता नहीं
मझ में कया दीखा कि तुम अलफ़त का दम भरने लगीं
में तो ख़ोद अपने भी कोई काम आसकता नहीं
रोह अफ़ज़ा हैं जनोन अशक़ के नग़मे मगर
अब में उन गाे हवे गीतों को गासकता नहीं
में ने दीखा है शकसत साज़ अलफ़त का समां
अब किसी तहरीक पर बरबत अठा सकता नहीं
दिल तमहारी शदत अहसास से वाक़फ़ तो हे
अपने अहसासात से दामन छड़ा सकता नहीं
तुम मरी हो कर भी बीगानह ही पा गी मझे
में तमहारा हो के भी तुम में समा सकता नहीं
गाे हैं में ने ख़लोस दिल से भी अलफ़त के गीत
अब रया कारी से भी चाहों तो गा सकता नहीं
किस तरह तुम को बन लों मींशरीक ज़नदगी
मींतो अपनी ज़नदगी का बार अठा सकता नहीं
यास की तारीकयों मीं डोब जाने दो मझे
अब मींशमा आरज़ो की लो बर्ह सकता नहीं
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